ई-लेखा

जाल मंच पर ई-लेख प्रकाशन का दूसरा प्रयास ।

Tuesday, April 04, 2006

विदेश का चस्का

मित्रों,
हम लोगों में विदेश का जो चस्का है, वो देखते ही बनता है।
घर परिवार, जान पहचान में कहीं भी कोई अगर विदेश जाता है तो चर्चा और आदर का पात्र बन जाता है।

मेरे ससुराल पक्ष से एक व्यक्ति 1 हफ्ते के लिए बाहर क्या हो आया, बस पूछो मत ।
जब भी घर में कोई बात हो, तो वहाँ का जिक्र जरूर ।
जैसे वहाँ तो कपडे धोने के लिए मशीनें ही मशीने, कोई खुद धोता ही नहीं और लहजा ऐसे जैसे कि जब तक कपडे उसी तरह से धुल न जाँए, जैसे कि बाहर होता है, उसे पहनना शर्म की बात है।

किसी दोस्त का लडका बाहर चला जाए तो पिताजी रोज उसकी चर्चा नित्यकर्म माफिक करें ।
चाहे खुद का लडका, सेवा कर के थक जाए ।

ये हीन भावना जाने कब जाएगी ..

12 Comments:

  • At 12:39 pm, Blogger Jitendra Chaudhary said…

    यार विदेश मे कोई लाल लगे हुए हैं क्या? वहाँ भी तो इन्सान रहते है, शायद हिन्दुस्तानियों से कम सयाने।ये तो हम लोगों की मानसिकता ही ऐसी है, या फिर एक हीन भावना का बोध कि वैसा सुख सुविधाए हमे अपने देश मे नही मिल सकती।

    अब हिन्दुस्तान भी बदल गया है, बेहतर होगा कि हम अपनी अपनी मानसिकता को भी बदलें।

     
  • At 3:10 pm, Blogger Pratik Pandey said…

    हम भारतीय लोग हमेशा दोलक की तरह दो अतियों पर घूमते रहते हैं, कभी इस तरफ़ और कभी उस तरफ़। सब वक़्त का फेर है। क़रीब ६०-७० साल पहले तक ही विदेश गए हुए इंसान को ऐसी नज़रों से देखा जाता था, मानो कोई तुच्छ जीव हो। अब समझा जाता है मानो वह कोई बहुत बड़ा तीसमारखां है।

     
  • At 4:44 pm, Blogger Ashish Shrivastava said…

    भईये किसी और को विदेश यात्रा का फायदा हो या ना हो मुझे जरूर हुआ है.

    मेरे रेट दूगुणे हो गये है :-)
    आशीष

     
  • At 7:00 pm, Blogger amit said…

    क़रीब ६०-७० साल पहले तक ही विदेश गए हुए इंसान को ऐसी नज़रों से देखा जाता था, मानो कोई तुच्छ जीव हो।

    क्या बात करते हो यार, आज़ादी से पहले के समय में, जो लड़का विदेश से पढ़कर आता था, उसकी तो वाह-वाह होती थी, चाहे गांधी को ले लो या नेहरू को। आजकल भी ऐसा ही है, बन्दा चाहे विदेश में बर्तन माँजता हो, यहाँ तो उसको ऐसे देखा जाता है कि मानो कोई किला फ़तह कर के आया हो। बस एक बार foreign return का ठप्पा लग जाए, लड़के के माता-पिता दूल्हों की मंडी में उसका भाव बढ़ा देते हैं!!

     
  • At 9:51 pm, Blogger Pratik Pandey said…

    शायद प्रमादवश ग़लत समयावधि लिख गया। सौ साल पहले लिखना ठीक रहता, क्योंकि लगभग १०० साल पहले विदेश यात्रा करने पर स्वामी विवेकानन्द और क़रीब १५० वर्ष पहले राजा राममोहन राय को काफ़ी विरोध और निन्दा का सामना करना पड़ा था।

     
  • At 10:00 pm, Blogger Tarun said…

    अब तक तो ये मानसिकता बदल जानी चाहिये,

     
  • At 10:43 pm, Blogger amit said…

    शायद प्रमादवश ग़लत समयावधि लिख गया। सौ साल पहले लिखना ठीक रहता, क्योंकि लगभग १०० साल पहले विदेश यात्रा करने पर स्वामी विवेकानन्द और क़रीब १५० वर्ष पहले राजा राममोहन राय को काफ़ी विरोध और निन्दा का सामना करना पड़ा था।

    भईये, सौ साल पहले भी गलत ही कै रिये हो, गांधी जी सौ साल से पहले विलायत गए थे, जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू भी विलायत से वकालत करके आए थे। बल्कि यूँ कहो कि लगभग प्रत्येक समर्थ व्यक्ति वकालत विलायत से ही करके आता था। विवेकानंद तथा राजा राम मोहन राय अपवाद हो सकते हैं, वैसे मैं निश्चय के साथ नहीं कह सकता था कि इन दोनो का विरोध विलायत होकर आने के कारण हुआ था या किसी और कारण। जहाँ तक मुझे पता है, विवेकानंद जी का विरोध उनके अमेरिका में धर्म सभा में भाग लेने के कारण या वहाँ कुछ कहने सुनने के कारण हुआ था।

     
  • At 11:07 pm, Blogger Yugal said…

    पहले जाउंगा फिर बताउंगा कि कैसा लगता है।

     
  • At 11:08 pm, Blogger Yugal said…

    पूरा जग सुंदर है यारों फिर क्या देश क्या विदेश

     
  • At 12:10 am, Blogger Pratik Pandey said…

    अमित भाई, उस समय सभी लोग वक़ालत विदेश से इसलिये करते थे, क्योंकि वक़ालत के सभी अच्छे कॉलेज विदेशों में ही थे।

    स्वामी विवेकानन्द ने यह बात ख़ुद अपने मुख से कही थी कि विदेश जाने के कारण कोलकाता के परोहिता-पण्डितों ने उनका कालीबाड़ी के मन्दिर में यज्ञ करने में विरोध किया था। चाहे तो विवेकानन्द साहित्य खण्ड 6 देख सकते हैं।

     
  • At 1:11 pm, Blogger amit said…

    स्वामी विवेकानन्द ने यह बात ख़ुद अपने मुख से कही थी कि विदेश जाने के कारण कोलकाता के परोहिता-पण्डितों ने उनका कालीबाड़ी के मन्दिर में यज्ञ करने में विरोध किया था। चाहे तो विवेकानन्द साहित्य खण्ड 6 देख सकते हैं।

    पता नहीं था यार, मैंने तो पहले ही कह दिया था। ;) बताने के लिए धन्यवाद। :)

     
  • At 4:16 pm, Blogger RUPESH TIWARI said…

    भाईयों यहाँ तो जबरदस्त और दिलचस्प चर्चायें चल रहि है|आज के जमाने सभी नये युवापिढीयों के अन्दर विदेश जानेका शौक ज्यादा है| क्योंकि आज कल IIT's मे भी यही पुछा जाता है कि तुम सब विदेश मे कहाँ settle down होना चाहते हो| और companies में जो विदेश से वापस हो आता है तो उसका मुल्य बढ जाता है; जैसा की हमारे आशीष भाई के साथ हुआ है शायद:)| प्रतिक जी की बातों से मैं सहमत हूँ| स्वामि विवेकानन्द जी का तो विरोध कई मन्दिरो में प्रवेश तथा कई जन के साथ भोजन भी नहीं कर पाने का भी दु:खद अवसर मिला था| परन्तु स्वामी जी ने युवकों से आह्वान किया था विदेश जाने के लिये परन्तु वहाँ settle down होने के लिये नही वरन वहाँ से कुछ सीख-कमा कर वापस विदेश लौट कर स्वदेशियों के सेवा के लिये कार्यरत होने को कहा था| उन्होने और कहा था..प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए। ( वि.स.१/३९८-९९)

     

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