ई-लेखा

जाल मंच पर ई-लेख प्रकाशन का दूसरा प्रयास ।

Tuesday, February 22, 2005

मैट्रो और एफ आई आर

हो सकता है आपको लेख का शीर्षक थोडा अजीब सा लगे पर जो बात मै आपसे कहने जा रहा हूँ, उसके लिए ठीक है।
पिछले हफ्ते दिल्ली का 4 दिन का चक्कर लगा। कोई तय कार्यक्रम नहीं था पर जाना पडा। एक भयानक विपदा आन पडी जिसकी वजह से तीस हजारी के कई चक्कर लगे। बता देना ठीक समझता हूँ कि तीस हजारी देश की राजधानी का जिला न्यायालय है। इन्ही चक्करों से देश की न्याय प्रणाली को काफी करीब से देखने का मौका लगा।

ISBT के कुछ दूरी पर स्थित ये इमारत शायद अंग्रेजों के जमाने की है। अगर आपका काम न हो तो आप बगल से निकल भी जाएँ तो आपको पता भी न चले। अन्दर घुसते ही भीड़ और किनारे में खाने पीने के खोखे और कचोरी, छोले वगैरह के ठेले। गेट व उसके आस पास गप्पें मारते पुलिस वाले। बाँए एक गली जिसमें वकीलों के कमरे । चारों तरफ बेतरतीब रूप से खड़ी गाडियाँ जिनमे ज्यादातर सरकारी। और आगे बढ़ने पर टंकण व अन्य चीजों के 6X6 के खोखे। सबने कागज की तख्तियाँ लटका रखी हैं जिनमें हर सेवा का एम. आर. पी. सूचित कर रखा है। अगर गलती से भी कौतुहलवश आपने इनकी ओर देख लिया तो ये आपको अपनी ओर आने का निमंत्रण दे डालेंगे बिल्कुल वैसे ही जैसे अस्पताल के सामने दवा की दुकान वाले आपको गला फाड कर बुलाते हैं।

थोडा और आगे जाने पर कार पार्किंग जहाँ ज्यादातर शरीफ लोग पार्क करते हैं। पूरा पार्किंग कच्चा और इतना खराब कि आप हिचकोलों का भरपूर आनन्द ले सकते हैं । पार्किंग के दस रू पर पार्किंग की कोई रसीद नहीं। पीछे की तरफ और कुछ वकीलों के चेम्बर हैं , जहाँ हमें जाना था। वकील ने बताया कि कोर्ट के अन्दर जाना है तो हम उसके साथ कोर्ट की तरफ वापस चले। रास्ते में एक जगह पर करीब 200 वकील लकडी की मेज कुर्सी लगा कर बैठे थे। कोर्ट के अन्दर जाले, धूल, पान की पीक, बीडी के टुकडे इत्यादि विद्यमान थे और दिल को तसल्ली हुई की कुछ भी नहीं बदला है।

थोडा दूर जाकर एक कमरे के सामने वो रूक गए। कमरे पर तख्ती लटकी थी जिस पर पब्लिक प्रोसीक्यूटर लिखा हुआ था। वकील ने हमसे 100 के दो नोट लिए और एक नोट को हाथ में रखा व दूसरे को जेब में। कमरे के अन्दर गए और नोट वाले हाथ से उन्होंने पुलिस वाले से हाथ मिलाया और नोट उसकी हथेली में सरका दिया। दूसरे सज्जन जिनसे इन्हें मुलाकात करनी थी नहीं मिले। बोले एक बार फिर आना पडेगा। मैंने पूछा किस लिए दिए? वो बोले प्रेम बना रहे इसलिए। क्या विधान है, न्याय के मंदिर में ही न्याय का बलात्कार। वो भी पुजारी द्वारा। हम वापस आ गए और मैंने उनसे विदा ली।

कोर्ट के बाहर थोडा ऊपर दिल्ली मेट्रो जा रही है, सोचा सफर कर देखे कैसी है। कोर्ट के बगल से ही सीढियाँ जा रही हैं जो सडके के ऊपर ओवरब्रिज से मिलती हैं। कितना सोच कर बनाया है। किसी को आना हो तो स्टेशन पर उतरे और सीढी पकड कर नीचे अपना काम करे और काम खत्म होने पर वापस। हमने सीढियाँ चढी और स्टेशन पहुँच गए। बिल्कुल विदेशों की तरह साफ सुथरा, सारी चीजें व्यवस्थित, सहायक स्टाफ। यानि सब कुछ जो निजी उद्यम को इंकित करती हैं। टिकिट, प्लास्टिक की गोटी जो कैरम की गोटी से थोडी छोटी होगी, खरीद कर आगे बढे। आगे बैरियर जो सिर्फ टिकिट से ही खुलते हैं। अपना टिकिट बै. के पास लगी एक स्क्रीन पर दिखाओ और प्रवेश पाओ। हमेशा बैरियर के पास सशस्त्र गार्ड व सहायता के लिए कर्मचारी । स्टेशन पर एसकलेटर देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि ये सब भी है। साथ में पिताजी भी थे बोले बुजुर्ग और दिल के मरीजों के लिए कितना सुविधाजनक है। नीचे उतर कर प्लेटफार्म आता है। कुल दो पटरियाँ, एक आने के लिए दूसरी ... । प्लेटफार्म पर पीली लाइनें बनी हुईं हैं जो बताती हैं कि आपको पटरी के इससे नजदीक नहीं जाना चाहिए । पर चूँकि हमारी आदत में शामिल है, सब लोग पटरी के नजदीक जा कर झाँक रहे थे कि ट्रेन आई कि नहीं । इसलिए वहाँ पर एक आदमी सिर्फ इसलिए खड़ा है कि लोगों को पीछे कर सके । बड़े डिस्पले बोर्ड लगे जो सारी जानकारी आपको देते हैं। 7 मिनट में एक ट्रेन आती है। ट्रेन बिल्कुल साफ सुथरी और सारे डिब्बे एक दूसरे से जुडे हुए। अन्दर स्पीकर लगे हुए हैं जो हर स्टेशन की जानकारी आपको देते हैं। ड्राइवर से बात करने के लिए स्पीकर फोन लगे हुए हैं। जिस रास्ते को तय करने में 1 घंटा लगता था अब 10 मिनट में तय होता है। पढा है कि मेट्रो में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हैं। कोई एंटी कोलिजन सिस्टम लगा हुआ है। आगे विचार है कि ट्रेनें एक कंट्रोल रुम से चलेंगी और ड्राइवर की जरुरत नहीं पडेगी।

अब आप खुद ही कयास लगा सकते हैं कि कितनी विसंगति है, कितना विरोधाभास। कहाँ दम तोडता हुआ न्याय प्रणाली का ढाँचा और कहाँ 21वीं सदी में कदम रखता नया भारत। कितनी शताब्दियाँ एक साथ जी रहा है भारत।
खैर कितने लोगों ने भारत को समझने की कोशिश की पर क्या को समझ पाएगा।

यह लेख एक हफ्ते बाद प्रकाशित हो रहा है तो घटनाओं की तिथी उसी हिसाब से लगा लीजिए।

2 Comments:

  • At 5:41 pm, Blogger Jitendra Chaudhary said…

    बचपन के मीत

    आशीष भाई,
    यही विडम्बना है हमारे देश की, एक तरफ तो हम २१सवीं शताब्दी मे जाते दिखते है और दूसरी तरफ पाषाण युगीन. कभी कभी अपराधों मे हम इतनी हदें पार कर जाते है कि लगता है हम अभी भी आदमयुग मे है. सरकारी कार्यालयों का हाल ये है कि लोग मजबूरी मे ही उनकी तरफ रूख करते है. सरकारी अस्पताल मे जाने से पहले आदमी मरना पसन्द करेगा और न्यायालय, उस पर से लोगों का विश्वास उठे तो जमाना बीत गया. हाँ बीच मे कभी कभी विरले किसी को न्याय मिलता है, बाकी तो बस वकीलों और अपराधियों का गठजोड़ बनकर रह गया है. धन्य है भारत और उससे भी ज्यादा धन्य है इतनी तकलीफों और विरोधाभासों के बीच भी रहने वाली जनता.

     
  • At 11:39 am, Blogger आलोक said…

    येन सर?
    जनाब, तीस हज़ारी जाने की क्यों ज़रूरत पड़ गई? हमने मैरिज सर्टिफ़िकेट लेने के चक्कर में ख़ूब चक्कर काटे थे इस घटिया जगह के। पर मेट्रो तो बढ़िया है। मानना पड़ेगा।

    आलोक

     

Post a Comment

<< Home