अमरीका – कितना मीठा कितना फीका
अमरीका – कितना मीठा कितना फीका
कहते हैं चरित्र की पहचान संकट या विपत्ती के समय होती है ।
हाल ही में अमरीका में आए प्राक्रतिक आपदा के समय वहाँ के वासियों की कारगुजीरियों पर अगर यह सिद्धाँत लागू करें तो आपका निष्कर्ष क्या होगा ?
चाहे आप कोई भी पक्ष की तरफ हों, अब अंकल सैम अपनी नैतिकता व मौलिकता का ढिंढोरा नहीं पीट सकते । पर वे शायद ही आदत से बाज आए, जो है दूसरे के फटे में अपनी टाँग अडाने की । चाहे वह ईराक हो या ईरान या कोरिया । विश्व शाँति के नाम पर सबसे ज्यादा अशाँति तो अंकल फैला रहै हैं । वॉर अगैंस्ट टैरर ।।
हाल ही में “टाइम” पत्रिका में मैं पढ़ रहा था कि हरीकेन के समय “कोंडम” टॉप सैलर थे और तूफान के बाद सबसे पहले और अकेले खुलने वाला प्रतिष्ठान था, सही सोचा, स्ट्रिप बार ।। क्या बात है । चाहे और कुछ हो न हो , रंगीनियाँ तो होनी ही चाहिए, क्या पता कल हो न हो ।।
मैं किसी की बुराई नहीं कर नहीं कर रहा हूँ पर यही कह रहा हूँ कि जब कपडों के अन्दर सभी नंगे हैं तो किसी को अपने कपड़ों पर घंमंड करना कितना ठीक है ।।
इतने दिनों बाद यही विषय ठीक लगा लिखने के लिए ।।
क्या बोला ।। एक्जैक्टली ।।।
कहते हैं चरित्र की पहचान संकट या विपत्ती के समय होती है ।
हाल ही में अमरीका में आए प्राक्रतिक आपदा के समय वहाँ के वासियों की कारगुजीरियों पर अगर यह सिद्धाँत लागू करें तो आपका निष्कर्ष क्या होगा ?
चाहे आप कोई भी पक्ष की तरफ हों, अब अंकल सैम अपनी नैतिकता व मौलिकता का ढिंढोरा नहीं पीट सकते । पर वे शायद ही आदत से बाज आए, जो है दूसरे के फटे में अपनी टाँग अडाने की । चाहे वह ईराक हो या ईरान या कोरिया । विश्व शाँति के नाम पर सबसे ज्यादा अशाँति तो अंकल फैला रहै हैं । वॉर अगैंस्ट टैरर ।।
हाल ही में “टाइम” पत्रिका में मैं पढ़ रहा था कि हरीकेन के समय “कोंडम” टॉप सैलर थे और तूफान के बाद सबसे पहले और अकेले खुलने वाला प्रतिष्ठान था, सही सोचा, स्ट्रिप बार ।। क्या बात है । चाहे और कुछ हो न हो , रंगीनियाँ तो होनी ही चाहिए, क्या पता कल हो न हो ।।
मैं किसी की बुराई नहीं कर नहीं कर रहा हूँ पर यही कह रहा हूँ कि जब कपडों के अन्दर सभी नंगे हैं तो किसी को अपने कपड़ों पर घंमंड करना कितना ठीक है ।।
इतने दिनों बाद यही विषय ठीक लगा लिखने के लिए ।।
क्या बोला ।। एक्जैक्टली ।।।
2 Comments:
At 12:15 pm, आलोक said…
इससे याद आ गया फ़िलिपींस में वो दिन - शुक्रवार था - शाम को भूकम्प आ गया। उस दिन मयखाने खचाखच भरे थे। इतनी भीड़ तो कभी नहीं देखी थी।
At 12:21 pm, आलोक said…
अमरीकियों व यूरोपियनों के साथ पङ्गा ये है कि वे अपनी संस्कृति, आदि को ही सबसे महान समझते हैं।
मेरे पड़ोस में एक जर्मन द्वारा, भारत में महिलाओं की स्थिति पर शोध हो रही है।
उसके अपने नाना नानी, दादा दादी, घर के बाहर, ओल्ड पीपल्स होम में रहते हैं। वह उनको मान्य है, और यहां की ग़रीबी के बारे में उन्हें ज़्यादा चिन्ता है। वो कहते हैं कि वहाँ पर खर्चा ज़्यादा होता है इसलिए खयाल नहीं रख सकते। तो हमें क्यों बोलते हो कि सब कुछ ढङ्ग से करो?
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